तीन विष्णु (विष्णु त्रयी )-महा -विष्णु ,नारायणी विष्णु और विष्णु

तीन विष्णु (विष्णु त्रयी )-महा -विष्णु ,नारायणी विष्णु और विष्णु
महा -विष्णु को कारणोदकशायी विष्णु ,हमारे हृदय में विराजमान विष्णु रूप (परमात्मा )को गर्भोदकशायी विष्णु तथा क्षीरसागर में अनंत शेष शय्या पर निमग्न विष्णु को क्षीरोदकशायी विष्णु अथवा केवल विष्णु कहा गया है।
यहां क्षीरसागर (दूध का समुन्दर )इस संसार का प्रतीक है जो परमात्मा की छाया है। इसे ही माया कहा गया है।
माया में प्रतिबिंबित ब्रह्म को अन्यत्र ईश्वर भी कहा गया है।
अनंत शेष अपने अनंत मुखों से विष्णु के नाम कहे तो भी उसके तमाम नामों का बखान नहीं हो सकता।
अनंत शेष (शेष नाग )संसार में मौजूद असंख्य पदार्थों का प्रतीक है जो कभी नहीं चुकते इनमें फंसा प्राणि जन्म मरण के चक्र में पड़ा रहता है।
छाया बनती बिगड़ती रहती है। संसार रुपी क्षीर सागर अनेक बार नष्ट होता है। लेकिन फिर भी यह प्रभु की छाया बोले तो माया उतनी ही प्रबल है जितना परमात्मा स्वयं ,उससे ज्यादा नहीं है तो कम भी नहीं है।
विष्णु का निमग्न लेटे रहना दर्शाता है वह इस माया से पदार्थ के आकर्षण से ऊपर हैं। अतिक्रमण करते हैं इस त्रिगुणात्मक सृष्टि का ,क्षीरसागर -रूपा माया का।
लक्ष्मी की जगह पैर ही हैं ,चंचला है धन -रूपा लक्ष्मी किसी एक जगह टिकती नहीं है। पदार्थ का आकर्षण अनंत शेष के अनंत मुखों से (फणों से )उगला हुआ विष ही है।मिथ्या है अल्पकालिक है टिकाऊ नहीं है।
यह माया सबको छल लेती है। जो इसके प्रभाव में है वह इन्दर है (इंद्र है )इन्द्रियों की गिरिफ्त में है वह जो काम -क्रोध -लोभ -मोह -स्पर्श रूपा माया के आकर्षण से ऊपर उठ चुका है वह इन्दर -जीत है (इंद्रजीत )है।

 

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